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संजय कुमार
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डायरेक्टर,सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज
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पुलिस पर मुस्लिमों के कम भरोसे से ज्यादा चिंता का विषय तो घटता भरोसा है जैसा कि सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के सर्वे से पता चलता है। सर्वे बताता है कि हिंदुओं की तुलना में पुलिस पर मुस्लिमों को सिर्फ भरोसा कम है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में घटा भी है। 2009 के सर्वे में 21 फीसदी हिंदुओं ने पुलिस में भरोसा होने की बात कही थी। अगले तीन साल में हिंदुओं के इस भरोसे में बमुश्किल ही कोई बदलाव आया, जैसा कि 2011 के सर्वे से पता चला। हालांकि, इसी समयावधि में मुस्लिमों का पुलिस पर भरोसा घटा है। 2009 के सर्वे में 19 फीसदी मुस्लिमों ने कहा था कि उन्हें पुिलस पर कोई भरोसा नहीं है, जबकि 2011 में यह प्रतिशत 26 तक बढ़ गया। पुलिस को लेकर भरोसे में यह कमी मोटेतौर पर शहरी उच्च वर्ग के शिक्षित मुस्लिम में दिखाई दी। गांवों में 24 फीसदी मुस्लिमों ने पुलिस पर कोई भरोसा होने की बात कही, जबकि गांवों में ऐसे हिंदू 20 फीसदी थे, लेकिन कस्बों शहरों में रहने वाले 29 फीसदी मुस्लिमों ने पुलिस पर कतई भरोसा होने के संकेत दिए। जहां पुलिस पर भरोसे के बारे में ग्रामीण शहरी हिंदू की राय में बमुश्किल कोई फर्क है, इस मामले में मुस्लिमों की राय में उल्लेखनीय फर्क है। इसी तरह मुस्लिमों के सभी आर्थिक स्तरों पर पुलिस के प्रति अविश्वास हिंदुओं के उसी आर्थिक वर्ग की तुलना में ज्यादा है। 2011 के अध्ययन से पता चलता है कि उच्च वर्ग के 17 फीसदी हिंदुओं को तो उच्च वर्ग के 24 फीसदी मुस्लिमों को पुलिस पर कोई भरोसा नहीं है। मध्यवर्गीय मुस्लिमों में तो यह अविश्वास और भी ज्यादा (27 फीसदी) है, जबकि निम्नवर्गीय हिंदुओं के 17 फीसदी तबके की ही ऐसी राय है। आर्थिक सीढ़ी पर आप जैसे-जैसे नीचे उतरेंगे, पुलिस के प्रति मुस्लिमों का भरोसा कम होता जाएगा। निम्न वर्ग में जहां 29 फीसदी मुस्लिमों को पुलिस पर भरोसा नहीं है तो गरीब मुस्लिमों में 32 फीसदी ने पुलिस में बिल्कुल भरोसा होने की बात कही है। हिंदुओं के मामले में भी यही बात है। 22 फीसदी निम्नवर्गीय तो 23 फीसदी गरीब हिंदुओं को पुलिस पर भरोसा नहीं है, लेकिन समान आर्थिक स्तर पर हिंदुओं में पुलिस पर भरोसा मुस्लिमों की तुलना में काफी कम पाया गया।
अविश्वास यहीं तक सीमित नहीं हैं । जब यह पूछा गया कि यदि उन्हें किसी विवाद को सुलझाने के लिए पुलिस थाने जाना पड़ा तो क्या उन्हें भरोसा है कि पुलिस मुस्लिम हिंदुओं के साथ समान व्यवहार करेगी, तो पाया कि जहां 39 फीसदी हिंदुओं को लगता है कि पुलिस दोनों में भेदभाव करेगी वहीं, 49 फीसदी को लगता है कि पुलिस मुस्लिमों के साथ भेदभाव करेगी। ग्रामी शहरी दोनों मुस्लिमों ने यह राय जताई। हालांकि, इसमें शहरी मुस्लिमों का प्रतिशत अधिक था (ग्रामीण 45 और शहरी मुस्लिम 55 फीसदी)। सर्वे से यह संकेत भी मिला है कि विभिन्न एजेंसियों (पंचायत, तहसील, बीडीओ कार्यालयों, अदालतों, पुलिस थाना, सरकारी अस्पताल और राशन की दुकान) में पुलिस को सारे वर्ग सबसे भ्रष्ट मानते हैं। इसमें मुस्लिमों का अनुपात ज्यादा है। 25 फीसदी भारतीय पुलिस को, 23 फीसदी तहसील या बीडीओ दफ्तर को जबकि 19 फीसदी पंचायत कार्यालय को सबसे भ्रष्ट मानते हैं। मुस्लिमों में 28 फीसदी पुलिस थानों को सबसे भ्रष्ट मानते हैं। इनमें शहरी मुस्लिमों का अनुपात ज्यादा है। ताजा रिपोर्ट ऐसी धारणा के पीछे मौजूद आधारभूत कारणों पर उंगली रखती है। ये कारण हैं पुलिस, नौकरशाही और सुरक्षा बलों में मुस्लिमों का कम प्रतिनििधत्व और कुछ पुलिसकर्मियों का (दुर) व्यवहार खासतौर पर सांप्रदायिक उपद्रव के दौरान।
निश्चित ही पुलिस के बारे में मुस्लिमों की यह धारणा पूरी तरह उनके साझा अनुभवों पर आधारित नहीं है, क्योंकि सर्वे से पता चलता है कि पुलिस से संवाद के मामले में हिंदुओं मुस्लिमों के बीच बमुश्किल कोई फर्क है। जब पूछा गया कि क्या कभी उनका पुलिस से वास्ता पड़ा तो हिंदुओं मुस्लिमों (19 फीसदी) ने बताया कि दीवानी या फौजदारी मामले में पीड़ित पक्ष होने, ऐसे मामले में गवाह होने या किसी कागजी कार्रवाई के संबंध में वे पुलिस के संपर्क में आए। बड़ी संख्या में लोगों ने बताया कि वे अपने दोस्त या संबंधी के साथ पुलिस थाने गए थे तब उनका पुलिस से साबका पड़ा।
बदलती धारणा का आकलन बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। खासतौर पर तब जब यह पुलिस जैसी संस्था के बारे में हो, जिसके बारे में लोगों की साझा धारणाएं होती हैं। ऐसी धारणाएं आपसी संपर्क संवाद से आसानी से बदली जा सकती है। रिपोर्ट में पुलिस में दीर्घावधि का भरोसा कायम करने के लिए ट्रेनिंग, जनता से संपर्क बढ़ाने, अफवाहों से निपटने के लिए विशेष साइबर शाखा स्थापित करने जैसे कदम उठाने की उचित सलाह दी गई है। यह चुनौतीपूर्ण तो है पर असंभव नहीं। इस कहानी का सकारात्मक पहलू यह है कि पुलिस में मुस्लिमों का भरोसा कम है, लेकिन उनमें ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो जरूरत पड़ने पर पुलिस के पास जाने को राजी हैं।
सीएसडीएस सर्वे के नतीजे इशारा करते हैं कि भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा (52 फीसदी 'हां', 24 फीसदी 'नहीं' और 23 फीसदी 'पक्का पता नहीं') जरूरत पड़ने पर खुद पुलिस के पास जाने को तैयार है, जबकि 49 फीसदी दूसरों को जरूरत पड़ने पर पुलिस से संपर्क करने की राय देंगे। ताजा रिपोर्ट एकदम ठीक वक्त पर आई है पर अब सरकार पर निर्भर है कि वह इस पर कार्रवाई करती है या इसे धूल खाने के लिए छोड़ देती है।
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डायरेक्टर,सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज
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19 August 2014, Danik Bhaskar |
पुलिस बलों को अल्पसंख्यक तबकों के
प्रति अधिक संवेदनशील बनाने संबंधी ताजा रिपोर्ट से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ है।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि मुस्लिमों को पुलिस पर भरोसा नहीं है। उन्हें लगता है
कि पुलिस सांप्रदायिक, पक्षपाती, असंवेदनशील तथा
पर्याप्त सूचनाओं और पेशेवर दक्षता से रहित है। यह रिपोर्ट हो या कोई अन्य रिपोर्ट
इस निष्कर्ष पर मुझे अचरज नहीं होता कि लोगों के रोज के जीवन से जितनी संस्थाओं का
संबंध आता है, उनमें लोगों का भरोसा जीतने में पुलिस सबसे आखिर में
आती है।
सर्वे बताता है कि सिर्फ भारत में बल्कि अन्य देशों में भी आम लोगों का पुलिस पर भरोसा कम ही है, अन्य संस्थाओं की तुलना में बहुत कम। ताजा रिपोर्ट ऐसी धारणा को सिर्फ पुष्ट करती है बल्कि उसने इस मुद्दे को फिर बहस का विषय बना दिया है। रिपोर्ट जताती है कि पुलिस बल में मुस्लिमों का कमजोर प्रतिनिधित्व भी भरोसे की कमी का एक कारण है।
सर्वे बताता है कि सिर्फ भारत में बल्कि अन्य देशों में भी आम लोगों का पुलिस पर भरोसा कम ही है, अन्य संस्थाओं की तुलना में बहुत कम। ताजा रिपोर्ट ऐसी धारणा को सिर्फ पुष्ट करती है बल्कि उसने इस मुद्दे को फिर बहस का विषय बना दिया है। रिपोर्ट जताती है कि पुलिस बल में मुस्लिमों का कमजोर प्रतिनिधित्व भी भरोसे की कमी का एक कारण है।
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पुलिस के तीन महानिदेशकों संजीव दयाल, देवराज नागर और के. रामानुजम द्वारा तैयार रिपोर्ट के आने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता था, क्योंकि भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने से मुस्लिमों में कुछ चिंता है। अन्य उपायों के साथ रिपोर्ट के सुझावों सिफारिशों पर कदम उठाने से मुस्लिमों में भरोसा जगाने में मदद मिल सकती है, जो देस का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और 2011 की जनगणना के मुताबिक आबादी का 13 फीसदी है।
पुलिस के तीन महानिदेशकों संजीव दयाल, देवराज नागर और के. रामानुजम द्वारा तैयार रिपोर्ट के आने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता था, क्योंकि भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने से मुस्लिमों में कुछ चिंता है। अन्य उपायों के साथ रिपोर्ट के सुझावों सिफारिशों पर कदम उठाने से मुस्लिमों में भरोसा जगाने में मदद मिल सकती है, जो देस का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और 2011 की जनगणना के मुताबिक आबादी का 13 फीसदी है।
पुलिस पर मुस्लिमों के कम भरोसे से ज्यादा चिंता का विषय तो घटता भरोसा है जैसा कि सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के सर्वे से पता चलता है। सर्वे बताता है कि हिंदुओं की तुलना में पुलिस पर मुस्लिमों को सिर्फ भरोसा कम है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में घटा भी है। 2009 के सर्वे में 21 फीसदी हिंदुओं ने पुलिस में भरोसा होने की बात कही थी। अगले तीन साल में हिंदुओं के इस भरोसे में बमुश्किल ही कोई बदलाव आया, जैसा कि 2011 के सर्वे से पता चला। हालांकि, इसी समयावधि में मुस्लिमों का पुलिस पर भरोसा घटा है। 2009 के सर्वे में 19 फीसदी मुस्लिमों ने कहा था कि उन्हें पुिलस पर कोई भरोसा नहीं है, जबकि 2011 में यह प्रतिशत 26 तक बढ़ गया। पुलिस को लेकर भरोसे में यह कमी मोटेतौर पर शहरी उच्च वर्ग के शिक्षित मुस्लिम में दिखाई दी। गांवों में 24 फीसदी मुस्लिमों ने पुलिस पर कोई भरोसा होने की बात कही, जबकि गांवों में ऐसे हिंदू 20 फीसदी थे, लेकिन कस्बों शहरों में रहने वाले 29 फीसदी मुस्लिमों ने पुलिस पर कतई भरोसा होने के संकेत दिए। जहां पुलिस पर भरोसे के बारे में ग्रामीण शहरी हिंदू की राय में बमुश्किल कोई फर्क है, इस मामले में मुस्लिमों की राय में उल्लेखनीय फर्क है। इसी तरह मुस्लिमों के सभी आर्थिक स्तरों पर पुलिस के प्रति अविश्वास हिंदुओं के उसी आर्थिक वर्ग की तुलना में ज्यादा है। 2011 के अध्ययन से पता चलता है कि उच्च वर्ग के 17 फीसदी हिंदुओं को तो उच्च वर्ग के 24 फीसदी मुस्लिमों को पुलिस पर कोई भरोसा नहीं है। मध्यवर्गीय मुस्लिमों में तो यह अविश्वास और भी ज्यादा (27 फीसदी) है, जबकि निम्नवर्गीय हिंदुओं के 17 फीसदी तबके की ही ऐसी राय है। आर्थिक सीढ़ी पर आप जैसे-जैसे नीचे उतरेंगे, पुलिस के प्रति मुस्लिमों का भरोसा कम होता जाएगा। निम्न वर्ग में जहां 29 फीसदी मुस्लिमों को पुलिस पर भरोसा नहीं है तो गरीब मुस्लिमों में 32 फीसदी ने पुलिस में बिल्कुल भरोसा होने की बात कही है। हिंदुओं के मामले में भी यही बात है। 22 फीसदी निम्नवर्गीय तो 23 फीसदी गरीब हिंदुओं को पुलिस पर भरोसा नहीं है, लेकिन समान आर्थिक स्तर पर हिंदुओं में पुलिस पर भरोसा मुस्लिमों की तुलना में काफी कम पाया गया।
अविश्वास यहीं तक सीमित नहीं हैं । जब यह पूछा गया कि यदि उन्हें किसी विवाद को सुलझाने के लिए पुलिस थाने जाना पड़ा तो क्या उन्हें भरोसा है कि पुलिस मुस्लिम हिंदुओं के साथ समान व्यवहार करेगी, तो पाया कि जहां 39 फीसदी हिंदुओं को लगता है कि पुलिस दोनों में भेदभाव करेगी वहीं, 49 फीसदी को लगता है कि पुलिस मुस्लिमों के साथ भेदभाव करेगी। ग्रामी शहरी दोनों मुस्लिमों ने यह राय जताई। हालांकि, इसमें शहरी मुस्लिमों का प्रतिशत अधिक था (ग्रामीण 45 और शहरी मुस्लिम 55 फीसदी)। सर्वे से यह संकेत भी मिला है कि विभिन्न एजेंसियों (पंचायत, तहसील, बीडीओ कार्यालयों, अदालतों, पुलिस थाना, सरकारी अस्पताल और राशन की दुकान) में पुलिस को सारे वर्ग सबसे भ्रष्ट मानते हैं। इसमें मुस्लिमों का अनुपात ज्यादा है। 25 फीसदी भारतीय पुलिस को, 23 फीसदी तहसील या बीडीओ दफ्तर को जबकि 19 फीसदी पंचायत कार्यालय को सबसे भ्रष्ट मानते हैं। मुस्लिमों में 28 फीसदी पुलिस थानों को सबसे भ्रष्ट मानते हैं। इनमें शहरी मुस्लिमों का अनुपात ज्यादा है। ताजा रिपोर्ट ऐसी धारणा के पीछे मौजूद आधारभूत कारणों पर उंगली रखती है। ये कारण हैं पुलिस, नौकरशाही और सुरक्षा बलों में मुस्लिमों का कम प्रतिनििधत्व और कुछ पुलिसकर्मियों का (दुर) व्यवहार खासतौर पर सांप्रदायिक उपद्रव के दौरान।
निश्चित ही पुलिस के बारे में मुस्लिमों की यह धारणा पूरी तरह उनके साझा अनुभवों पर आधारित नहीं है, क्योंकि सर्वे से पता चलता है कि पुलिस से संवाद के मामले में हिंदुओं मुस्लिमों के बीच बमुश्किल कोई फर्क है। जब पूछा गया कि क्या कभी उनका पुलिस से वास्ता पड़ा तो हिंदुओं मुस्लिमों (19 फीसदी) ने बताया कि दीवानी या फौजदारी मामले में पीड़ित पक्ष होने, ऐसे मामले में गवाह होने या किसी कागजी कार्रवाई के संबंध में वे पुलिस के संपर्क में आए। बड़ी संख्या में लोगों ने बताया कि वे अपने दोस्त या संबंधी के साथ पुलिस थाने गए थे तब उनका पुलिस से साबका पड़ा।
बदलती धारणा का आकलन बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। खासतौर पर तब जब यह पुलिस जैसी संस्था के बारे में हो, जिसके बारे में लोगों की साझा धारणाएं होती हैं। ऐसी धारणाएं आपसी संपर्क संवाद से आसानी से बदली जा सकती है। रिपोर्ट में पुलिस में दीर्घावधि का भरोसा कायम करने के लिए ट्रेनिंग, जनता से संपर्क बढ़ाने, अफवाहों से निपटने के लिए विशेष साइबर शाखा स्थापित करने जैसे कदम उठाने की उचित सलाह दी गई है। यह चुनौतीपूर्ण तो है पर असंभव नहीं। इस कहानी का सकारात्मक पहलू यह है कि पुलिस में मुस्लिमों का भरोसा कम है, लेकिन उनमें ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो जरूरत पड़ने पर पुलिस के पास जाने को राजी हैं।
सीएसडीएस सर्वे के नतीजे इशारा करते हैं कि भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा (52 फीसदी 'हां', 24 फीसदी 'नहीं' और 23 फीसदी 'पक्का पता नहीं') जरूरत पड़ने पर खुद पुलिस के पास जाने को तैयार है, जबकि 49 फीसदी दूसरों को जरूरत पड़ने पर पुलिस से संपर्क करने की राय देंगे। ताजा रिपोर्ट एकदम ठीक वक्त पर आई है पर अब सरकार पर निर्भर है कि वह इस पर कार्रवाई करती है या इसे धूल खाने के लिए छोड़ देती है।
Courtesy- Danik Bhaskar
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