Monday, August 4, 2014

अल्पसंख्यक कल्याण :कहां तक पहुंचा है कारवां ?

ad300
Advertisement
सुभाष गाताडे


ल्पसंख्यक कल्याण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं का हाल पिछले दिनों संसद के सामने पेश हुआ। पता चला कि इस सिलसिले में आठ साल पहले शुरू की गयी प्रधानमंत्री की 15 सूत्रीय योजना के कई बिन्दुओं पर अभी काम भी नहीं शुरू हो सका है। इतना ही नहीं बल्कि कई राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में इसके लाभार्थियों की संख्या शून्य है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम की ओर से इन योजनाओं के लिए आवंटित किए गए धन के आंकड़ों को आधार बना कर इस सम्बन्ध में सदन में जानकारी प्रस्तुत की गयी।

ध्यान रहे कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार की पहली पारी में तैयार की गयी सच्चर कमीशन की रिपोर्ट जब तक सामने नहीं आयी थी जिसने पहली दफा इस बात को सबूतों के आधार पर प्रमाणित किया कि अपने मुल्क में अल्पसंख्यक वंचना का अनुपात काफी ज्यादा हैतब तक कोई इस बात को मानने को भी तैयार नहीं था। रिपोर्ट के प्रकाशन का सकारात्मक नतीजा निकला कि केन्द्र सरकार को अल्पसंख्यक विकास के प्रति सक्रिय रूख अपनाना पड़ा। अब जबकि इसे शुरू हुए कुछ समय बीत गया हैतो जो तस्वीर उभरती है वह किसी भी मायने में उत्साहित करनेवाली नहीं हैआंकड़े यही बताते हैं।
                
संसद में इस सम्बन्ध में प्रस्तुत रिपोर्ट कार्ड के मुताबिक 9 राज्यों /केन्द्र शासित प्रदेशों ने वित्त वर्ष 2013-2014 में इस योजना के तहत किसी भी अल्पसंख्यक उद्यमी को कुछ भी सहायता उपलब्ध नहीं करायीजबकि इस तरह की सहायता उपलब्ध कराना 15 सूत्रीय कार्यक्रम का हिस्सा रहा है। जैसेबिहारचंडीगढ़छत्तीसगढ़दिल्लीगुजरातहरियाणाकर्नाटकउड़िसा और त्रिपुरा। इस योजना के अन्तर्गत नामित राज्यों को उनकी एजेंसियों के जरिए कर्ज दिया जाता हैजिसका मकसद होता है स्वरोजगार और लाभ कमानेवाली 10 लाख रूपए तक की परियोजनाओं को मदद उपलब्ध कराना है। अगर माईक्रोफाइनान्स योजना की बात करें तो पता चलता है कि इसके तहत भी राज्यों का परफार्मंस अनियमित रहा है। 2013-2014 में असमगुजरातहिमाचल प्रदेशजम्मू कश्मीरमहाराष्ट्र और उड़िसा में कोई कर्ज नहीं दिया गया। विगत तीन साल के आंकड़ों को देखें तो जहां गुजरात ने महज 89 लोगों को इसके अन्तर्गत कर्जा दिया जबकि इसी अन्तराल में तमिलनाडु ने 14,666 और पश्चिम बंगाल ने 44,889 लोगों को कर्ज दिया। अगर हम अल्पसंख्यक छात्रों के लिए चलायी जानेवाली मुफ्त कोचिंग जैसी योजना की बात करें जिसके अन्तर्गत सरकारी नौकरियोंनिजी क्षेत्र या प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश हेतु जिन प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं में बैठने वाले प्रत्याशियों को प्रशिक्षण दिया जाता हैतो वहां पर भी स्थिति कतई उत्साहवर्ध्दक नहीं है। 15 राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों ने इसके अन्तर्गत लाभार्थियों की संख्या शून्य बतायी। अल्पसंख्यकों के लिए शहरी रोजगार प्रदान करने की योजना का नतीजा वैसा ही रहा। स्वर्णजयंती शहरी रोजगार योजना के अन्तर्गत - जो 15 सूत्री कार्यक्रम का हिस्सा है - मध्यप्रदेश और राजस्थान में किसी भी व्यक्ति को रोजगार नहीं दियाजबकि उन्हें लगभग एक हजार लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना था। जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के तहत भी जिन इलाकों/शहरों में अल्पसंख्यक आबादी अधिक हैवहां पर परियोजना आवंटित की जानी थीइसके अन्तर्गत आलम था कि 13 राज्यों ने ऐसी कोई योजना आवंटित नहीं की।

अगर संसद में प्रस्तुत इस रिपोर्ट को देखें तो यह बात उजागर होती है कि इस मामले में सभी पार्टियों का रूख एक जैसा ही है। अपने आप को अल्पसंख्यक समुदाय के वोटों के लिए अधिक चिन्तित मानने वाली पार्टियां भी कम से कम अल्पसंख्यकों के बहुआयामी विकास के प्रति चिन्तित नहीं दिखती। कह सकते हैं कि इस मामले में राजनीतिक इच्छाशक्ति का गहरा अभाव दिखता है।

गौरतलब है कि यह स्थिति महज राज्यों द्वारा विकास कार्यक्रमों को संचालित करने में ही नहीं दिखतीं। तीन साल पहले यह ख़बर आयी थी कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद अल्पसंख्यकों को कर्जा मुहैया कराने में बैंक बहुत आनाकानी करते हैं। बैंकिंग लोकपाल कार्यालय में तथा सम्बधित अधिकारियों के यहां ऐसे तमाम केस दर्ज है जिसमें कर्जा देने में कोताही बरतने के मामले उजागर हुए हैं। इस सिलसिले में सभी प्रमुख बैंकों के अध्यक्षों एवं प्रबन्ध निदेशकों के साथ वित्त मंत्रालय द्वारा एक उच्चस्तरीय बैठक का इसीलिए आयोजन किया गया था ताकि वित्तीय समावेशन की सरकारी घोषणाओं एवं वास्तविक हकीकत के बीच व्याप्त अन्तराल की पड़ताल की जा सके। इतना ही नहीं उन्हीं दिनों राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के हवाले से यह विचलित करनेवाला तथ्य उजागर हुआ था कि शेडयूल्ड कमर्शियल बैंकों द्वारा खाता खोलने को लेकर भी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ देश के पैमाने पर काफी आनाकानी की जाती है। अल्पसंख्यकों के खाते खोलने में की जा रही ढिलाई की सबसे अधिक मार छात्रों पर पड़ी थी।

 इसे आप संयोग कह सकते हैं कि संसद में प्रस्तुत उपरोक्त रिपोर्ट के महज तीन दिन पहले देश के तीन राज्यों - महाराष्ट्रउत्तर प्रदेश और तमिलनाडु - के डायरेक्टर जनरल आफ पुलिस तथा इंटेलिजेन्स ब्युरो के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा मिल कर तैयार की गयी एक आन्तरिक रिपोर्ट के अंश अख़बारों में प्रकाशित हुए थेजिन्होंने पुलिस बल में अल्पसंख्यकों के प्रति व्याप्त जबरदस्त पूर्वाग्रह का खुलासा किया था और यह भी कहा था कि अगर इसे जल्द ठीक नहीं किया गया तो मुल्क की आन्तरिक सुरक्षा के लिए इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। ध्यान रहे कि प्रस्तुत रिपोर्ट एक तरह से पुलिस और गुप्तचर एजेंसियों को देश के विभिन्न हिस्सों से मिली सूचनाओं का सारांश एवं संकलन मात्र है। इसमें समुदाय के साथ पुलिस की अन्तर्क्रियासमुदाय के नेताओं के उद्गार और उनके द्वारा प्रकाशित लेखों पर भी गौर किया गया है। रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि 'पुलिस एवं अल्पसंख्यक समुदाय के बीच के अन्तराल को पाटा जाएउनके बीच अन्तर्क्रिया बढ़ायी जाएसाम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए स्टेण्डर्ड आपरेटिंग प्रोसिजर्स विकसित की जाए।

रिपोर्ट की शुरूआत बंटवारे के जख्मों के विश्लेषण से शुरू होती हैजो बताती है कि किस तरह उसने अन्तर-सामुदायिक सम्बन्धों को 'विषाक्तकर दिया और दोनों समुदायों में एक दूसरे के प्रति सन्देह की भावना को जन्म दिया। रामजन्मभूमि आन्दोलन ने किस तरह उन इलाकों में भी साम्प्रदायिकता को उभारा जो पहले शान्त थेइसका उल्लेख करते हुए वह बताती है कि किस तरह आज पूरे देश के पैमाने पर ध्रुवीकरण की स्थिति दिखती है। किस तरह आज की तारीख में हर वह जगह जहां अल्पसंख्यकों की आबादी 15 फीसदी के आसपास है - साम्प्रदायिक तौर पर सम्वेदनशील हो गयी हैइसका उल्लेख करते हुए वह बताती है कि पुलिस की रूख ने भी इसमें कोई सहायता नहीं पहुंचायी है।

हालांकि पुलिस के प्रति विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों की धारणाओं पर रिपोर्ट गौर करती हैमगर इसका फोकस भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय अर्थात मुस्लिम्स पर है। रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु के अलावा किसी भी अन्य राज्य ने पुलिस के प्रति अल्पसंख्यकों की धारणा को लेकर कोई अलग सर्वेक्षण नहीं किया है।

 रिपोर्ट के मुताबिक ''अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस को साम्प्रदायिक समझते हैउन्हें लगता है कि जब दो समुदायों का मामला होता है तो पुलिस आम तौर पर बहुसंख्यक समुदाय के प्रति पक्षपात बरतती है। हर राज्य में साम्प्रदायिकता की भावना व्याप्त है और दंगों के दौरान वह अधिक उभरती है।ध्यान देने योग्य था कि तमिलनाडु पुलिस को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय की ऐसी धारणा रिपोर्ट में नज़र नहीं आती। पुलिस में जानकारी का अभावउनमें सम्वेदनशीलता की कमी का जिक्र करते हुए रिपोर्ट बताती है कि 'पुलिस थानों के अन्दर मंदिरों की मौजूदगी और पुलिस स्टेशनों के अन्दर प्रमुखता से लटकी उनकी हिन्दू देवताओं की तस्वीरेंया अपने युनिफार्म में भी कपाल पर तिलक लगायी पुलिस की मौजूदगी इस धारणा को बल प्रदान करती है कि पुलिस साम्प्रदायिक है।'

पुलिस अगर सूझबूझ से काम ले तो किस तरह मामूली विवादों को तूल देने से बच सकती हैइसकी कुछ मिसालें भी रिपोर्ट में पेश की गयी है। अन्त मेंपुलिस एवं समुदाय के बीच आपसी अन्तर्क्रिया बढ़ाने, 1993 के बाद मुंबई के कई संमिश्र इलाकों में बनी मोहल्ला कमेटियों के सकारात्मक अनुभवों से सीख लेने या मिलीजुली आबादी में पुलिस की पहल पर खेलकूद का आयोजन करने जैसे दिलचस्प सुझाव भी रिपोर्ट में पेश किए गए हैं।

समावेशी विकास से अल्पसंख्यक समुदायों की दूरी और देश के कर्णधारों की उसके प्रति बेरूखी और वहीं कानून एवं सुरक्षा का जिम्मा सम्भालनेवाली एजेंसियों के अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति एकांगी रूख की कड़वी हक़ीकत - दोनों से जो मिलाजुला चित्र उभरता हैवह किसी भी मायने में सुकूनदेह नहीं कहा जा सकता।

 संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों को इस मामले में गम्भीरता से हस्तक्षेप करना चाहिए। वैसे इस बात को देखते हुए कि प्रस्तुत संसद में अल्पसंख्यक समुदाय के चुने हुए सदस्यों की संख्या न्यूनतम है और इतना ही नहीं सत्ताधारी पार्टी की तरफ से देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी सदस्य नहीं हैयह कैसे होगा यह स्पष्ट नहीं है।


Share This
Previous Post
Next Post

Pellentesque vitae lectus in mauris sollicitudin ornare sit amet eget ligula. Donec pharetra, arcu eu consectetur semper, est nulla sodales risus, vel efficitur orci justo quis tellus. Phasellus sit amet est pharetra

0 coment�rios: